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कविता

काँटोंवाली बाड़

आरती


ठहरो, वहीं रुको
पास मत आओ
कि असंख्य काँटे उगे हैं मेरी हथेलियों में
तुम भी लहूलुहान हो जाओगे
कब तक मरहमपट्टी कर करके कदम बढ़ाओगे
तुम तोहमतें लगाओ
उससे पहले आगाह किए जाती हूँ

मैं जानती हूँ
पूछे बिना नहीं रहोगे
मेरे रहस्यों को खोजने
झाँकोगे इधर उधर
मेरी हथेलियों में भरे काँटे बीनने की
कोशिश
जरूर करना चाहोगे

जानबूझकर उगाए हैं मैंने
ये नुकीले काँटे, अपने चारों ओर
आखिर जंगली जानवरों से बचाता ही है
किसान अपने खेत

वैसे तो चुभते हैं मुझे भी
रिसता है लहू
ये नुकीले शुष्क काँटे
भेद करना नहीं जानते अपने पराए में
बस चुभ जाते हैं
गोरी काली मोटी मुलायम
कैसी भी त्वचा में
किसी भी मन में

औरों से थोड़ा भिन्न हो तुम
झाड़ पोंछकर मेरे शब्दों की चुभन
यूँ लौट लौटकर पूछते हो...
क्या काँटों के बीच फूल खिलने की
रूमानियत में
यकीन करते हो?


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